Tuesday, June 15, 2010

क्या तुम औरत हो ? यदि हाँ तो तुम बहुत गन्दी औरत हो

क्या तुम औरत हो ? यदि हाँ तो तुम बहुत गन्दी औरत हो !!!!


अनगिनत सवालों ने मुझे कभी परेशान नहीं किया हर सवाल का उत्तर मै खोज लेती और अपने आप को उन सवालों के घेरे से बाहर निकाल लेती पर यह प्रश्न मेरे अंतःकरण में अनगिनत सवालों के मायाजाल में ऐसे मुझे ऐसे फंसा लिया कि मैं अभिमन्यु की तरह अपने आप को चक्रव्यूह में फंसा महसूस करने लगी और तिल तिल घुटने लगी! इस प्रश्न से मेरी अंतरात्मा विचलित होने लगी! इस प्रश्न ने मेरे पूरे व्यक्तित्व को बदल कर रख दिया था! यह प्रश्न एक महिला ने मुझसे तब किया जब मैंने उसके पति का सत्य रूप उसके तथा उस पुरुष के जन्मदाता के सामने रख दिया था! उसे मेरे सत्य पर कोई विश्वास नहीं हुआ उसे लगा की मैं झूठा आडंबर कर रही हूँ या यूं कहें कि उसके पति परमेश्वर ने जो मेरा रूप उसे दिखाया उस मायाजाल में फंसकर वो मेरे चरित्र का चरितार्थ नहीं कर पा रही थी और अनगिनत ह्रदय आच्छादित करने वाले शब्द बाणों से मेरे ह्रदय को विच्छेदित कर रही थी और मैं विषम सी उसके शब्द बाणों को झेल रही थी
उस दिन से यह प्रश्न मेरे अंतःकरण को खाए जा रहा था! क्या वह सत्य कह रही थी ?
मैं हूँ क्या?
क्या है मेरा व्यक्तित्व?
क्या वाकई में मैं औरत हूँ? अगर हूँ तो क्या सच में गन्दी औरत हूँ?
औरत का क्या रूप होता है?
इन अनंत सवालों में मेरा फंसा मन अपने आप से प्रश्न करता रहा और मैं उत्तर खोजती रही पर आज उन सवालों के मायाजाल से निकलकर सारे प्रश्नों के उत्तर दे रही हूँ स्वयं को और आज मैं कह सकती हूँ कि हाँ! मैं नारी हूँ ! मुझमें नारीत्व के सारे गुण हैं!मैं अपने सारे फ़र्ज़ निभा रही हूँ !मैंने सत्य अवलोकन किया सत्य मार्ग चुना तो मैं गन्दी कैसे हो सकती हूँ ? मेरे ईश्वर ने जो सत्य मार्ग मुझे दिखाया मैं उसी पर चली हूँ! मेरे ईश्वर ने जो कहा मैंने वही मार्ग चुना, वही किया जो उसकी मंशा थी और यह भी सच है कि कोई मनुष्य दूसरे जैसा नहीं हो सकता ! हर मनुष्य का एक रूप होता है और वह उसी के अनुसार अभिनय करता है ! मैंने भी वही किया तो मैं गलत कैसे हो सकती हूँ? यह तो उस औरत की अन्तः कुंठा थी जो उसके शब्दों से बाहर निकलकर आई थी !
रही बात प्रश्नोत्तर की तो यदि भोजन बनाना ,कपडे धोना, बच्चों का लालन-पालन करना ही औरत होता है तथा परिवार को भोजन कराना औरत होता है तो एक नौकर भी पूरी श्रद्धा भाव से अपने स्वामी की सेवा में पूर्णतया समर्पित होता है ! चाहे वो नर हो या नारी , वह अपने मालिक के लिए भोजन भी बनता है ,कपडे धोता है, घर की देखभाल करता है तब तो वो सच में एक नारी होता है और नारी से ज्यादा महान होता है ! क्या पुरुष की यौन इच्छाओं को पूर्ण करना ही नारी है? संतान को जन्म देना और उनका लालन-पालन करना नारी रूप है तो मुझे लगता है कि यह स्वार्थ पूर्ण रूप है !
नारी का रूप इतनी सीमित सीमाओं में कैसे बंधा हो सकता है ? यदि उसके लिए यही नारी का रूप है तो मुझे लगता है कि शायद उसके हिसाब से मैं नारी नहीं हूँ क्योंकि मेरा रूप इससे व्यापक है

"नारी प्रकृति है
नारी धरा है
सृजन की शक्ति
ईश्वर में है
पर नारी सृजनकर्ता है
नारी सृष्टि पालक है
नारी असीम अस्मिता है"

और यदि मैंने गलत को गलत कहा, गलत को सुधारने के लिए उसका अपमान किया तो इसका मतलब मैं नारी नहीं यह गलत है क्योंकि यदि मैंने उस पुरुष को डांटा, उसे बुरा-भला कहा तो मैंने माँ का रूप निभाया! माँ भी अपने बच्चे को उसकी गलती पर डांटती है और मारती भी है! यदि मैंने उसकी निंदा की और उसे बार बार जताया कि तुम्हारा रास्ता गलत है तो मैंने एक अच्छे मित्र की भूमिका निभायी! यदि मैंने उसका बुरा स्वरुप उसके जन्मदाता को दिखाया तो मैंने एक गुरु की भूमिका निभायी और यदि मैंने उसका सच दुनिया के सामने लाने का प्रयास किया तो सच्चे समाजसेवक की भूमिका निभाकर कई जिंदगियों को बचा लिया और शायद मैंने अपना अच्छा प्रयास किया तो अगर इतना कुछ करने के बाद भी अगर कोई यह प्रश्न उठाता है कि मैं नारी नहीं हूँ तो यह प्रश्न उसके लिए प्रश्नचिन्ह है?

नारी जननी है
नारी गृहणी है
नारी भगनी है
नारी ब्रहम संसार
नारी नहीं तो यह पुरुष कैसा
क्योंकि नारी के गर्भ में
सिमटा जीव संसार
नारी की जब स्मिता पर
होता है प्रहार
तो वही बन जाती है
अग्नि का अंतिम द्वार

क्योंकि स्त्री का मतलब गुरु बनकर सत्य मार्ग दिखाना , माँ बनकर गलत राहों से बचाना , सखा बनकर सत्य और झूठ का परिचय कराना है !
स्त्री सृजनात्मक शक्ति है, वह माँ है ,जन्मदात्री है ! वह जीवन के मूल स्त्रोत से जुडती है और सौम्य है ! उसकी शक्ति करूणा है, उसकी शक्ति ममता है !उसकी शक्ति सूरज जैसी नहीं है , उसकी शक्ति चन्द्रमा जैसी है! क्रोध आने पर वह प्रचंड अग्नि के समान होती है तथा सौम्य होने पर जल का प्रवाह कर देती है यह सत्य रूप है नारी का ! मैं भी यही रूप हूँ और हमेशा रहूंगी ....................................

6 comments:

अरुणेश मिश्र said...

नारी की व्यथा कथा का गहन चिन्तनोपरान्त यह लेख सांगोपांग है ।
बधाई ।

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji said...

अग्निमन !!
सच में अग्निगर्भा !!

Unknown said...

=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=0=
स्त्री को किसी भी प्रकार के हीनभाव या अपराधबोध या स्वयं को पुरुष से कमतर समझने के भाव को त्यागकर केवल पुरुष की यौनेच्छाओं को पूर्ण करने के लिये स्वयं को बलिदान करने के भाव से उबर कर सहचरी, सहवासी जैसे सार्थक एवं सम्मानजनक शब्दों में समानता का भाव ढँूढने की और तदनुसार आचरण करने की जरूरत है।
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मैडम मैंने आपका दिल को छू लेने वाला आलेख पढा और इसमें समाहित दर्द को समझने का प्रयास किया, बधाई एवं साधुवाद। हालांकि प्रारम्भ में ही मैं स्पष्ट कर दूँ कि किसी नारी के हृदय की वेदना, कामना, उमंग और स्नेह को समझना पुरुष के लिये सहज नहीं है। फिर भी स्त्री, स्त्री होने से पहले एक मानव है। वह भी मनुष्य है, उसे भी दुःख, दर्द और खुशी का अहसास पुरुष की ही भांति होता है। यदि लैंगिक सम्बन्धों की अनुभूतियों को छोड दिया जाये तो शेष सब बहुतकुछ समान जैसा ही है, लेकिन स्त्री के स्त्रेण गुण प्रशंसनीय हैं न कि आलोचनीय, जैसा कि पुरुष प्रधान समाज करता रहा है।

गन्दी औरत तथा पवित्र औरत के जो भी संस्कार किसी भी पुरुष या स्त्री के मन में या अवचेतन मन में स्थापित हैं, इसके लिये वह पुरुष या स्त्री अकेले ही सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार नहीं हैं। यहाँ तक कि कोई भी कातिल या बलात्कारी भी अपने कृत्य के लिये सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार नहीं है। चूँकि हम सब समाज के अभिन्न हिस्सा हैं। समाज ही हमारा समाजीकरण करता है। समाज ही हमें वह सब सिखाता है, जिसे समाज अच्छा या बुरा कहता या मानता है। इसलिये कहीं न कहीं समाज की व्यवस्था में ही दोष हैं।

इसके बावजूद भी यह बात भी समझने वाली है कि समाज के कुछ चुनिन्दा और विरले लोग ही समाज का मार्गदर्शन एवं नेतृत्व करते हैं। ऐसे विरले लोगों में अन्य अनेक गुणों या योग्यताओं या अच्छाईयों के साथ-साथ, मेरे मतानुसार संवेदनशील होने का गुण होना अनिवार्य है, क्योंकि निष्ठुर या असंवेदनशील व्यक्ति चाहे कितने ही बडे पद पर प्रतिष्ठित हो वह अच्छा मनुष्य नहीं हो सकता है।

अतः मैं दावे के साथ इस बात को कह सकता हँू कि आपके अन्दर संवेदनशील व्यक्ति होने का अनुकरणीय गुण मौजूद है, जिसे जिन्दा रखना बहुत जरूरी है और साथ में यह भी कि संवेदनशील व्यक्तियों में आम तौर पर देखा जाता है कि वे लोगों द्वारा आसानी से व्यथित किये जा सकते हैं। इसलिये संवेदनशीलता गुण के समानान्तर अपनी संवेदनाओं पर विजय पाने और किसी से अच्छे या बुरे की अपेक्षा नहीं करने के भाव को समझकर, इस पर अमल करने की भी जरूरत है। हमें कोई दुखी कर सकता है, यह अन्ततः हमारी भी कमजोरी है।

हर कदम पर हमें इस बात को याद रखना चाहिये कि इस समाज में अधिक लोग ऐसे हैं, जो दूसरों को आगे बढते हुए नहीं देखना चाहते हैं। समाज के जिस भी वर्ग में अग्रणी या प्रगतिशील या स्मार्ट लोगों की संख्या कम हो, वहाँ यदि कोई आगे बढता है या बढने का प्रयास करता है तो ऐसे में वह व्यक्ति सबसे पहले अपने ही वर्ग के लोगों के कोप का शिकार होता है। इसे आप समाज के हर क्षेत्र में देख सकते हैं। अतः इस बात को लेकर इतना दुःखी होने की जरूरत नहीं है। हाँ दुःख होता है, लेकिन कुछ ही क्षणों में दुःख से उबरने की कला भी आना या सीखना जरूरी है।

अपनी बात को समाप्त करने से पूर्व आपके एक वाक्य पर टिप्पणी करने का साहस कर रहा हँू। यदि इसमें कुछ अन्यथा या असंगत लगे तो कृपया अपनी असहमति के कारणों से अवश्य अवगत करायें, ताकि मैं स्वयं की धारणा को ठीक कर सकँू। आपने लिखा है कि-

----क्या पुरुष की यौन इच्छाओं को पूर्ण करना ही नारी है? संतान को जन्म देना और उनका लालन-पालन-करना नारी रूप है तो मुझे लगता है कि यह स्वार्थ पूर्ण रूप है ! नारी का रूप इतनी सीमित सीमाओं में कैसे बंधा हो सकता है ? यदि उसके लिए यही नारी का रूप है तो मुझे लगता है कि शायद उसके हिसाब से मैं नारी नहीं हूँ क्योंकि मेरा रूप इससे व्यापक है----
.....शेष नीचे अगली टिप्पणी में पढ़ें......

Unknown said...

....ऊपर की टिप्पणी का शेष पढ़ें....

नारी का रूप इतनी सीमित सीमाओं में कैसे बंधा हो सकता है? यह बात तो शतप्रतिशत सत्य और सर्वस्वीकार्य है, कि नारी में वे सब गुण हैं, जिनका आपने बहुत खूबसूरती से खित्रण किया है, लेकिन ----क्या पुरुष की यौन इच्छाओं को पूर्ण करना ही नारी है?---- इस वाक्य में जो बात आपने कही है, इसको गहरे में जाकर समझने की जरूरत है, क्योंकि कल के सन्दर्भ में तो यह बात आलोच्य रही है, लेकिन आज के सन्दर्भ में आप जैसी ज्ञानवान स्त्री के लिये इस प्रकार की सोच रखना मेरे मतानुसार ठीक नहीं है। हाँ स्त्री एवं पुरुष में कुछ प्रकृतिजन्य विषमताएँ अवश्य हैं, यदि हम उनको छोड दें तो स्त्री और पुरुष सन्तानों को जन्म देने आपस में एक-दूसरे की भावनाओं और यौनेच्छाओं को पूर्ण करने के लिये जन्मे हैं। यहाँ पर मैं भावनाओं को प्राथमिकता दे रहा हँू। मेरा मानना है कि स्त्री कि लैंगिक सम्बन्धों में भावनाओं को प्राथमिकता दिया जाना अपरिहार्य है।

अतः स्त्री को किसी भी प्रकार के हीनभाव या अपराधबोध या स्वयं को पुरुष से कमतर समझने के भाव को त्यागकर केवल पुरुष की यौनेच्छाओं को पूर्ण करने के लिये स्वयं को बलिदान करने के भाव से उबर कर सहचरी, सहवासी जैसे सार्थक एवं सम्मानजनक शब्दों में समानता का भाव ढँूढने की और तदनुसार आचरण करने की जरूरत है। मैं फिर से दौहराना चाहता हँू कि प्रकृतिजन्य एवं अनेक मनोशारीरिक कारण ऐसे हैं, जिनके कारण स्त्री को ऐसा लगता है कि वह पुरुष के लिये केवल भोग्या है। जबकि सच्चाई यह नहीं है। स्त्री भी समान रूप से न सही, लेकिन यौनसुख प्राप्त कर सकती है। जिसपर उसका पूर्ण नैसर्गिक अधिकार है।

शुभकामनाओं सहित-आपका-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा निरंकुश, सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है। इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, या सरकार या अन्य बाहरी किसी भी व्यक्ति से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३२८ आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
E-mail : dr.purushottammeena@yahoo.in

Sarita said...

ब्लागिंग की दुनिया में आपका स्वागत है. आपकी अभिव्यक्ति की शैली प्रभावकारी है. हिंदी ब्लागिंग को आप नई ऊंचाई तक पहुंचाएं, यही कामना है....
इंटरनेट के जरिए घर बैठे अतिरिक्त आमदनी के इच्छुक ब्लागर कृपया यहां पधारें - http://gharkibaaten.blogspot.com