कितने अच्छे भाव से जीवन संचेतन का विस्तार किया है
ह्रदय कोई धड़ मांस का लोथरा मात्र नहीं है अपितु एक मासूम बच्चा है यह ना राजनीतिज्ञ होता है न ही राजनैयिक . यह बस भाव प्रधान जीवन की संचेतना होता है.
हम जीवन भर मेरा तेरा करते मर जाते हैं भूल जाते हैं
हम क्या है?
हमारा क्या अस्तित्व है?
क्या हम हिन्दू हैं?
क्या हम मुसलमान हैं?
या क्या हम सिख/ईसाई हैं?
जीवन भर यही कहते रहते हैं कि हम यह हैं हम वह हैं पर सच तो यह अहि कि हम कुछ भी नहीं हैं और जैसे शब्द शांत हुए भाव भी शांत और हम जीवन के अनंत रूपों में खो जाते हैं .
ईश्वर कि संतानों में जब मानव बच्चा होता है तो कितना मासूम होता है सारे छल प्रपंचों से दूर अपने जीवन के निर्मल अभिप्रेरणा में खोया रहता है । उसे ना बोध होता है कि वो क्या है? कहाँ है? कैसा है ?
"काश एक बार मै
फिर बच्ची बन जाऊँ
माँ के आँचल में
दुबक कर सो जाऊँ
ना हो कोई आस
ना कोई चाह
माँ कि गोद में सब स्वर्गों को पा जाऊँ
काश एक बार मै
फिर बच्ची बन जाऊँ"
हम वस्त्रों के बीच बेचारे इस ह्रदय संवेदना को बंद कर लेते हैं और मस्तिष्क अपने शब्दों पर हावी हो जाते हैं .
कहते हैं हम ज्ञानी हैं. यदि हम भाव से दूर हैं तो हम किसी के मान सम्मान से भी दूर होते हैं तो हम ज्ञानी नहीं मूर्ख हैं .
पता है यदि एक बार हमने अपने ह्रदय को जान लिया तो पूरी संचेतना को जान लिया । मै कोई मज़ाक नहीं कर रही यह सच है . अपने ह्रदय कि बात पहले सुनती हूँ बाद में मस्तिष्क की बात सुनती हूँ
यदि ह्रदय को जान लिया तो आत्मा, मान और सम्मान से परे हो जाते हैं. आत्मा अजन्मा है और अपने अनंत जन्मों में लीन हो जाती है.
"मेरा ह्रदय कहता है
हँसो, खुद पर हँसो
बिना विचार , बिना कार्य
बिना संवाद हँसो
हँसते रहो
यदि विचार आएगा
तो हँसना स्वत ही खो जाएगा
इसलिए निःशब्द होकर हँसो
हँसते रहो"
मेरा मन कहता है कि वो करो जो तुम्हारा विवेक कहता है न कि वो करो जो ग्रन्थ कहते हैं , जो धर्मगुरु कहते हैं. धर्मगुरु वो कहते हैं जो उनका विवेक कहता है , जो उन्होंने अपने जीवन से सीखा है.
मेरी आत्मा कहती है कि जो तुमने सीखा है तुम वो करो
मुझे आज भी याद है जब मै पाँच साल की थी तो मेरे पिता कहते थे कि जीवन में झूठ मत बोलना , चोरी नहीं करना .मै वही करती हूँ.
इसका परिणाम होता है कि लोग मुझे गाली देते है और मुझे गलत कहते हैं पर मैं उन गालियों को खाती हूँ और झूठ नहीं बोलती बस जीवन भर कष्ट और दूसरों कि इन्हीं भावनाओं का शिकार होती हूँ.
मेरे पिता गलत नहीं थे वो सही कहते थे पर अपने समय के अनुसार वो सही थे पर आज का समय कहता है जो जैसा करे उसके साथ वैसा करो अपना लाभ देखो मुझे लगता है कि यदि तुम्हें यह बात सही लगती है तो यही करो व्यर्थ रोना बेकार है तुम्हें खुश रहने का अधिकार है और तुम खुश रहो दूसरों से चोट खाने से अच्चा है पुराने विषय के अर्थ को छोडो नए साहित्य लिखो जो आपको खुश रख सकता है आज के परिवेश में यही जीवन का सच्चा अर्थ है
1 comment:
.......मै कोई मज़ाक नहीं कर रही यह सच है . अपने ''ह्रदय'' कि बात पहले सुनती हूँ बाद में ''मस्तिष्क'' की बात सुनती हूँ....
मेरा ''मन'' कहता है कि वो करो जो तुम्हारा ''विवेक'' कहता है......
क्या उक्त दोनों बातें विरोधाभाषी नहीं? विचार करें! जरूरत हुई तो विस्तार से लिखूंगा!
शुभकामनाओं सहित।
आपका
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र) एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) (जो दिल्ली से देश के सत्रह राज्यों में संचालित है।
इस संगठन ने आज तक किसी गैर-सदस्य, सरकार या अन्य किसी से एक पैसा भी अनुदान ग्रहण नहीं किया है। इसमें वर्तमान में ४३६४ आजीवन रजिस्टर्ड कार्यकर्ता सेवारत हैं।)। फोन : ०१४१-२२२२२२५ (सायं : ७ से ८) मो. ०९८२८५-०२६६६
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