Thursday, June 23, 2011

मेरा चहरा जो था अब वो ना रहा ....









मेरा चेहरा जो था अब वो न रहा .....


दरिया से मिलके सोच बैठे थे, हम समंदर से मिल
गए


कितनी अजीब बात की, कि खुद को भूल बैठे

लड़े वो जंग दुनिया से , जिसका मतलब भी कोई, कोई मतलब न था
हार कर बैठे अपने वजूद को , हाथ खाली था , हाथ खाली ही रहा


यकी किस पर करे, या बस अन्दर की बात की
हर शकस के चहरे पे चढ़ा एक नकाब था

मेरी मौत का तमाशा देख रहे थे सभी
बढकर कफन डाल देते या जरुरी न समझा


आज मेहफिल भी वाही हम भी वाही
पर सब बदल गया,
मेरा चहरा जो था अब वो ना रहा .....

मेरा चहरा जो था अब वो ना रहा ..............................


4 comments:

एस एम् मासूम said...

वो जंग दुनिया से , जिसका मतलब भी कोई कोई मतलब न था

हार कर बैठे अपने वजूद को , हाथ खाली था , हाथ खाली ही रहा
.
बहुत खूब कहां है आपने

रवीन्द्र प्रभात said...

अभिव्यक्ति सुन्दर और सारगर्भित है, बधाईयाँ !

विजय तिवारी " किसलय " said...

मेरी मौत का तमाशा देख रहे थे सभी
बढकर कफन डाल देते या जरुरी न समझा
achchhi abhivyakti hai
- vijay

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

सुंदर अभिव्यक्ति
क्या बात है।