Wednesday, June 30, 2010

उफ़ वाह रे जीवन व जीवन की संचालक


उफ़ वाह रे जीवन व जीवन की संचालक
शायद यही कलयुग है



सुबह-सुबह हर अख़बार कीसुर्खियों में यदि देखे तो मिलता है राजनैतिक उठापटक कही कांग्रेस बीजेपी के अखाड़े में उठापटक करती मिलती है तो कही बीजेपी कांग्रेस से रंगमंच पर नाटक करती मिलती है तो कही मुलायम मायावती की तो कही ममता समता की पर धाक के तीन पाँच दोनों अलग अलग अपनी ढपली अपना राग अलापती मिलती हैं दोनों स्वार्थी अपने अपने स्वार्थ सिद्धि में लगे रहते हैं जनता को ऐसे लुभाने में लगे रहते हैं जैसे एक सामान बेचने वाला चिल्लाता है कि मेरा माल अच्छा है, मेरा माल अच्छा है !जनता कन्फयूज़ बस कानाफूसी में लगी रहती ,है मायावती की ढपली तो काशीराम और अम्बेडकर स्मारक पर टिकी रहती है बेचारी जनता की विडम्बना सत्ता में बैठी सिसकती रहती है जनता बस आतंकवाद अमेरिकावाद और जनवाद के नारे में लगी रोटियाँ सेकती रहती है और हम मूर्ख पहला पन्ना पढ़ दूसरे पन्ने को पढने के लिए चल देते हैं !
दूसरे पन्ने की क्या बात? अपना शहर एक बड़ा अपवाद झूठी खबरे और विज्ञापन की बहार बेचारे यदि विज्ञापन न छापें तो खायेंगे क्या और बजायेंगे क्या ?
तीसरा पन्ना -छोटी मोटी कुछ बहार बीच में लटकती युवतियों की फुहार और अगर अखबार का अहोदा न बढे तो थोड़ी गृहस्थी की गाड़ी को खींचती महंगाई की मार ऐसी है अपने शहर की एक पहचान !
चौथे और पांचवे पन्ने में भी कही कठपुतली का नाच तो कही महफिलों में सुरों की गीत मल्हार
क्या कहे इन लोगो को जीवन के सच से नहीं कोई सारोकार !
छठा सांतवा पन्ना ही बेचारा ! रोज़ अपवाद वाह रे विज्ञापन की लम्बी मिसाल ,
आंठवें तक तो दम तोड़ देती है पाठक की आस फिर भी हार ना मानने का ले लेता है संकल्प अरे देख सच से रूबरू करता अखबार पर किसी भी कहानी में नहीं सत्य और असत्य ! असत्य में सत्य जोड़ना और नहीं जीवन में कोई दरकिनार !
दसवें ग्यारहवें पन्ने में कुछ तो फिर राजनैतिक उठापटक पर कौन पढ़े टीवी चैनलों की भी यही रोती खबर फिर आती विचार संपादन और अभिवादन की बारी बस वही पुराने घिसे पिटे विचार जिससे नहीं जीवन की सारोकार !
कही सवाल जवाब तो कही पाकिस्तान के कोसते विचार तो कही सूचनाओं का भ्रमजाल तो ईश्वर के भ्रमित वचन तो कही पुरानी फिल्मों की रोल मॉडल वाह वाह वाह क्या बात!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


कही किसी अभिनेत्री की मौत ,


तो कही चश्मा लगाये अमिताभ बच्चन का !


दवाइयों की पुकार तो ,


कही गिरते मकान !


ऐसे होते हैं आज के अखबार,


न इन्हें ख़बरों से होता है, कोई सारोकार
इनकी बस चलती रहे दुकान!!

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