दिन बदला रात बदली
समाज बदल गया
क्यों ना मै बदले
जो नदिया बहती थी
पैरो तले मेरे
कब की सिमटा दूर बहाने लगी
जो दीपक ख़रीदे थी जलाने के लिया
आज टूट मिटी में मिलगये
अब तो साझ की दोपहरी भी बदल गए
ओ रि सखी क्यों मै ना बदली
समय की हर धुरी
घूम अपनी धुरी बदल चुकी
सोचकी मरियादा छोड
कबकी बादली अपनी दिशा को चलदी
जग बदला
ओरी सखी
मै क्यों ना बदली
चहचहाना भूली मुस्किरना भूली
कलियों की बारिश ने नहाना मै अब भूली
बातो बातो में कुछ गुम होजाना भूली
आज देखो सहम गई खुद अचल में मरी हंसी
अपने अंदर के बसी शर्मोहया भूली
पर यह एक एहसास है
मै क्यों ना बदली
क्यों ना बहा पाई
जीवन की नदिया के बसेरो सा बहाना
क्यों अतीत के पन्नो में सिमटी
खो ना पाई आज की बाहों में
वही पुराने पथ चिन्नो को देखती
लिखती रही आसुओ को
काश रोसनी आए जुबपे मेरी
मै लिखूँ खिलता सूरज की सोम्यता
चाँद में सिमटे गुलाब हंसी लिखूँ . . . . .
वो डूबते सूरज को देखूँ और मुस्कुराऊ कलवो फ़िर निकलेगा
ओ री सखी काश अब मै भी बदलू .
1 comment:
koi sayad badal gaya hai.aur ager nahi badla to badalne ki kosis kare . thahrna,rukna to maut hai samay aur jarurat ke sath badlna aur aage barna hi jindgi hai janab..
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