Thursday, June 23, 2011

गजल


सोच कर या हमें भी गुमान होता था

रुलाके मुझको बहुत वो भी तो रोया होगा

मेरी तरह रात भरा वो भी न सोये होगे

हकीकत जान का हम बहुत रोये

रुला के हमें वो रातभर गहरी नीद में सोये

हमने रात इंतजार में कट दी

सयद उन्हें भी मेरे दर्द का अंदाजा हो

पर टूट गया वो भी भ्रम

अब तो तकिया भी हमारी भीगी

और अश्क भी हमारे बस सैलाब बने


4 comments:

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

क्या बात है. बहुत सुंदर

रंजना said...

Waah !!!

अग्निमन said...

sukriya

इंकलाब said...

सायद आप को बुरा लगे पर जनाब रोने वालो का साथ दुनिया नहीं देती है ! अगर जीना है हसना सीखना हो गा ,वैसे भी चंद दिनों की जिन्दगी होती है अगेर रोते रहे गे तो जिए गे कब .........तो हसना सीखिए ..गाना सीखिए ....इतिहास पर नहीं भविष्य पर ..भविष्य को जितना सीखिए ....तब गजल और कबिताय भी हस्ती दिखे गी .