मुझे कविताओ का न ज्ञान न संवादों का
पर न जाने क्यों मेरे शब्द
तुम्हारे आस पास से ही गुजरते रहते है
जानती हूँ
इस शदी के प्रथम मानव हो
जो बदलना चाहते हो
धरा की तक़दीर
पता है तुम कुछ भी,
सोचा है तुमने कैसे बदलोगे इस धरा का
योग
संजोग
वियोग
अधियोग
अरे छोड़ो अपनी धुरी पे
अपने संस्कारो के साथ लटकती इस धरा को तुम क्या बदलोगे
हें..
मुस्कुरा क्यों रहे हो .....?
क्यों मौन व्यंग बाडों से आछादित कर रहे
मेरी शब्दों की सिरों को
बोलो
अब तुम्हे बोलना है
मै भी सुनना चाहती हूँ
की तुम कैसे शिराओ को
पकड़ का उनकी धुरी को बदलो गे
कैसे माया तिलाश्म
को तुम तोड़ो गे
कैसे बदलोगे मिट्टी, पत्थर, पेड़, शहर, गाँव को
manu manju shukla
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