Wednesday, June 23, 2010

उसे सिर्फ अल्लाह का नाम याद था


आज सुबह की बात है मै शांत मौन टैक्सी स्टैंड में टैक्सी पर बैठी उसके चलने का इंतजार कर रही थी और अपने जीवन में घटित कुछ अनचाही घटनाओ के मायाजाल में फंसी अपने आप से बाते कर रही थी, लोगो को आता जाता देख रही थी कि तभी अचानक ...मेरी दृष्टि के सामने बनी दरगाह पे एक औरत गई और मै उसे निहारने लगी जैसे उस ईमारत को पहली बार देख रही हो ! लोग अंदर जा रहे थे और इबादत कर रहे थे मानो ईश्वर से कह रहे हो आज का दिन मेरा शुभ हो .....मुझे उन पर हंसी भी आ रही थी क्या ईश्वर है यदि ईश्वर है तो मुझमें इतना कोलाहल क्यों ॥क्यों मेरा मन शांत नहीं क्यों आज मेरी आत्मा विचलित है !


का मंदिर का मस्जिद का गिरजाघर का जाऊ मै गुरुद्वारा
हर द्वारा पे सजदा कर देखा
पर ना पाई मन में धीरज
मेरी आँखों का पानी बहता देख
क्यों उसको दया नहीं आइ
आज भी है यह प्रश्न
मेरे अन्तकरण में
क्या ईश्वर है इस सत्ता में


मेरी आँखे इसी उथल पुथल में थी और मन अशांत और व्याकुल अनगिनत सवाल और कोई उत्तर नहीं कि आचानक मैने एक औरत को देखा तक़रीबन ४० - ४५ साल या उससे भी ज्यादा की उम्र पार कर चुकी थी! पैरो में ना तो चप्पल थी ना बैठने की सही जगह थी दरगाह के दरवाजे के बाहर सड़क पर बैठी थी किसी भले घर की औरत लग रही थी क्योंकि उसकी शालीनता इस बात की गवाही दे रही थी ! सर पर पल्ला सलवार किसी और रंग का तो कुर्ता किसी और रंग का हाथ में एक गन्दा पन्ना जो शायद किसी ने कुछ खाकर सड़क पर फेक दिया होगा ! एक छोटी सी पेंसिल लिए उस पन्ने पर कुछ लिख रही थी ! मैंने बड़ी ध्यान दे कर देखने की कोशिश की वो क्या लिख रही है ! बाये से दाहिने तरफ की ओर उसकी पंसिल की नोक चल रही थी पर वो क्या लिख रही थी दूर से देखना कठिन था बहुत ध्यान से देखा तो वो अल्लाह अल्लाह अल्लाह अल्लाह ................... लिखती जा रही थी उसे उस वक्त यह भी ध्यान नहीं था कि कौन आया कौन गया और कौन उसे निहार रहा था मानो सब कुछ भूल गई हो उसे सिर्फ अल्लाह का नाम याद था मै उसे देखती जा रही थी .........! मैने देखा जब उसकी पेंसिल की नोक खत्म हो गई तो वो उस पेंसिल को जमीन पर रगड़ कर फिर से उसकी नोक बनाने का प्रयास करने लगी ! तब तक मेरी टैक्सी चल दी और मै यही सोचती रही आज इस दशा में भी यह औरत अल्लाह को याद कर रही है दयनीय दशा में भी जब कि उसे दूसरो की दया में जीवन यापन करना पड रहा है उसे यह भी नहीं पता कि आज उसे कितनी भीख मिलेगी ! क्या आज उसे पर्याप्त भोजन मिलेगा या नहीं ? ना उसके पास खाने के लिए भोजन था न पहनने के लिए वस्त्र और ना रहने के लिए ठिकाना फिर भी ऐसा कौन सा विश्वास था जो उसे इस मुश्किल दौर में भी सिर्फ और सिर्फ अल्लाह का नाम याद था


"ऐ खुदा
कब तक तू मुझे आजमाएगा

कब तक तेरे बन्दे इसी तरह मुझे तेरी याद दिलाएंगे

कितना और तू मेरा इम्तहान लेगा

एक दिन तो
तुझे भी कोई आजमाएगा जब हार जायेगा
थक कर तू भी मुझे
अपने द्वार पर बुलाएगा "

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