Sunday, August 15, 2010

आजादी के तीन रंगों से सजे रथ को अब नहीं ढो सकता एक पहिया



आजादी के ६३ वर्ष पर भी आज यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या हम आजादी का सही मतलब जानते है! यदि सोचे तो पता चलेगा कि आजादी क्या है! क्या हम सही मनो में आजाद है ? ॥क्या हम ने आज भी सही मायने में आजादी का सही मतलब जाना है ! हमें तो अंग्रेजों से देश आजाद करा लिया पर हम अभी भी जातिवाद सत्तावाद, सामंतवाद, रूढ़ीवाद, भाषावाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार कि अनगिनत बेडियो मे जकड़े है ! कही पर अन्य प्रदेश से आये हुआ लोगो को इस लिया मारा जाता है की वो उनके वेश भाषा से अनभिज्ञ है !


तो कही लाचार बेबसों को आतकवाद और मौवादी कहकर मौत के घाट उतर दिया जाता है
तो कही बेसहारो कि झोपद्पतियो में आग लगा रहे है पूजीवादी !
तो कही मिनरलवोटर से मुंह धो रहे लोग है, तोकही एक बुंद पिने के पानी
तो तरस रहे है लोग ! कही महिलो को अस्मिता के लिया मर दिया जाता है
तो कही उन्हें प्रेम की सजा म्रतुदंड दिया जाता है !
तो कही रोजगार के लिया दरदर भटक रहे है लोग!

आज़ादी के 63 साल बाद भी औरत आज़ाद नहीं हो पायाी। औरत के प्रगति की गति तेज़ तो हुई लेकिन उसके स्थिति की सुधार की प्रक्रिया बहुत धीमी रही। कभी भावना की बेड़ियों में, कभी मोहब्बत के छलावे में, कभी सरमायेदारों के दबदबों में ही उसे जीना पड़ा। बात चाहे विवेका बाबाजी की आत्महत्या की हो या मोहब्बत करने वालियों की झूठी षान के नाम पर हत्या की, षिकार तो औरत का हुआ ही। कितनी भिन्न तस्वीर है औरत की। गांवों में तो उनकी दुर्दषा है ही, षहरों में भी कमोवेष वही हाल है। केवल कुछ ग्लैमरस औरतों को देखकर ही हिन्दुस्तान भर की औरतों के हाल को अच्छा नहीं कहा जा सकता। औरत को आज़ाद तभी माना जा सकता है जब उसे बेड़ियों और भेड़ियों से रिहा कर दिया जाय। कहने का अर्थ उसे भी बराबरी का दर्जा दिया जाय। प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार उसे भी है तथा औरत की आज़ादी के मायने भी यही हैं।


आज भी देश में ७५ः लोग गरीबी रेखा से नीच जीवन यापन करने के लिया मजबूर है ! प्रश्न यहाँ उठता है कि क्या देश में जनसंख्या के अनुपात से भोजन चिकित्सा सेवाए और शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध है तो उत्तर मिलता है नहीं ! आज भी अधिकतम लोग अपने जीवन को अपने शर्तो पर न जीने के लिया असमर्थ है... कैसी यहाँ विडंबना है आज एक आम आदमी १०० रुपया में भी पर्याप्त भोजन करने में असमर्थ है ! यह किसका दोष है , जनता का दोष है यह चुने हुए जान प्रतिनिध का दोष है! आज यहाँ सवाल हमारेदेश कि जनता के सामने मुंह बाये खड़ा है! पर उत्तर विचाराधीन है न्यालय कि किसी पत्रावली में भा रखा है ! जो शयद कभी भी नहीं खुलपाएगा में स्वर यहाँ है कि जिन शहीदों ने अपने आजादी के लिए अपने जानो के बलि दी है यदि आज के स्वरुप को वो देख तो यहाँ सच है तो वो कभी अपने जान के बलि नहीं देते !


प्रश्न यह उठता है कि देश को आजाद करने के लिये जिन्होंने कुरबानिया दी, क्या वो कुरबानिया महज बेकार रही! इस सम्बन्ध में देश कि जनता और बुधिजिवियो को विचार करना चहिये कि जो आज कि व्यवस्था है उसे कैसे सुधार जाये यहाँ बात सरे देख के लिया बड़ी गौरतलब है कि हमें आज के दिन प्रण करना चाहिए और प्रस्ताव पारित करना चाहिए कि इस व्यवस्था को अगले गत वर्ष तक पूर्ण रूप नहीं तो कुछ सुधर सुरु करना के लिया कदम उठाना चहिये सुरवात का अर्थ है आधा काम होना !

1 comment:

Anonymous said...

आप लिखती हैं कि-

1- "औरत को आज़ाद तभी माना जा सकता है जब उसे बेड़ियों और भेड़ियों से रिहा कर दिया जाय। कहने का अर्थ उसे भी बराबरी का दर्जा दिया जाय।"

2- "प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार उसे भी है तथा औरत की आज़ादी के मायने भी यही हैं।"

आपके लेख के केवल उक्त दो बिन्दुओं पर में कुछ लिखने की इच्छा रखता हूँ। आशा है कि आप इन विचारों को निरपेक्ष भाव से पढकर समझने का प्रयास करेंगी।

१. औरत को बेड़ियों और भेड़ियों से भारत में सरकार या समाज द्वारा अभियान चलाकर या घर-घर फैरी लगाकर आजाद करने की किसी नयी और पुख्ता व्यवस्था की उम्मीद करना, दिन में सपने देखने के समान है। जहाँ तक कानून की बात है तो सब आजाद हैं।

लेकिन सभी जानते हैं कि आप हम सब समाज के शिकंजे में फंसे हुए हैं। औरत की बेड़िय मजबूत हैं। अत: औरत को ही क्यों और किसी भी कमजोर या संवेदनशील व्यक्ति को समाज से आजादी मिलना प्राय: असम्भव है। आप जिन बेड़ियों तथा भेड़ियों की बात कर रही हैं, ये इसी धर्मभीरू, बहुरंगी और ढोंगी समाज की दैन हैं।

मेरा मानना है कि इन बेड़ियों और भेड़ियों से केवल औरत या कोई भी व्यक्ति स्वयं सक्षम होने पर ही स्वयं को मुक्त कर सकता है।

इस दुनिया में लोग उसी की मदद करते हैं, जो स्वयं अपनी मदद करने को तत्पर हो। इसलिये निराशा के गहरे अन्धकार में डुबकी लगाने से बेहतर हैं कि हम वही देखें, वही सोचें और वही करें, जिसकी हमें वास्तव में जरूरत है।

हमारी स्वयं की सकारात्मक सोच, हमारी असम्भव सी प्रतीत होने वाली बहुत सारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर देती है। जब हम सकारात्मक होते हैं तो बुरी से बुरी स्थिति में भी हमें आशा की किरण नजर आने लगती है और इसके विपरीत जब हम नकारात्मकता के भंवर में गौता लगा रहे होते हैं तो अच्छी से अच्छी स्थिति में भी हमें केवल निराशा एवं अन्धकार ही नजर आता है।

२-प्यार, सम्मान और सुरक्षा की दरकार औरत को भी है और आजादी के मायने भी यही है। आपकी इस बात से असहमत होने का कोई कारण ही नहीं। यदि किसी औरत को प्यार, सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलती तो उसका जीवन, नर्कमय हो जाता है। इसीलिये अधिकांश भारतीय गृहणियों का जीवन नर्कमय है। उन्हें हिस्टीरिया जैसी कभी न मिटने वाली बीमारियों को झेलना प‹डता है।

आपको एक कडवी बात बतला रहा हूँ कि भारत में प्रचलित वैवाहिक पारिवारिक बन्धनों की जेल रूपी सामाजिक व्यवस्था में स्त्री द्वारा दैहिक सुरक्षा की आशा तो की जा सकती है, लेकिन प्यार और सम्मान किन्हीं अपवादों को छो‹ड दिया जाये तो असम्भव है। जबकि हर कुंवारी लडकी विवाह के बाद आशा करती है कि उसे ससुराल में प्यार, सम्मान और सुरक्षा मिलेगी।

स्त्री ही नहीं पुरुष भी विवाह के बाद प्यार एवं सम्मान की अपेक्षा करते हैं। सुरक्षा के मामले में पुरुषों की स्थिति थोडी बेहतर है। लेकिन पुरुषों को भी कहाँ मिलता है-वांछित प्यार एवं सम्मान? मैं फिर से दौहराना चाहूँगा कि भारत में प्रचलित वैवाहिक पारिवारिक बन्धनों की व्यवस्था में प्यार और सम्मान किन्हीं अपवादों को छोड दिया जाये तो असम्भव है।

एक विद्वान मानवव्यवहारशास्त्री का कहना है कि यदि आप किसी स्त्री का या किसी पुरुष का प्यार पाने की आकांक्षा रखते/रखती हैं तो उस पुरुष/स्त्री से कभी भी विवाह नहीं करे और यदि आपने किसी से विवाह रचा लिया है और आपकी चाह है कि आपका विवाह ताउम्र चले तो अपने पति/पत्नी से कभी भी प्यार पाने की उम्मीद नहीं करें।

उक्त कथन की अन्तिम पंक्ति को समझ कर जीने क नाटक करने वाले पति-पत्नी समाज में सफल दम्पत्ति की उपाधि से नवाजे जाते हैं।

हो सकता है कि भारतीय सामाजिक परिवेश में आपको मेरी उपरोक्त बातें अप्रासंगिक लगें, लेकिन मानव हृदय के उद्गार या प्यार के अहसास देश और समाज की सीमाआ में नहीं बांधे जा सकते!

जब व्यक्ति अपने अहसास और समाज के बन्धनों के बीच कशमसाता है तो वह सबसे बडी सजा भुगत रहा होता है, जिससे कोई समाज या कानून मुक्त नहीं कर सकता! स्वयं व्यक्ति को इस प्रकार की स्थिति से मुक्त होने के रास्ते अपनाने होते हैं, जिनका मार्ग सच्चे प्यार (स्नेह) और ध्यान से सम्भव है।

शुभकामनाओं सहित।