प्रेम का कोई छोर नहीं होता
सच तो है ये की प्रेम का कोई ठोर नहीं
याद करती है नाम वो प्रीतम का
ऐरी सखी मौन हो जाती जुबा
आंख डबडबा जाती मेरी
खामोश सजी लबो पे हंशी
आँखों को रुलाजाती है
मेरे दिल का ताज महल ब्याकर्ता
शाहजहाँ की बेवफाई
मेरे पहले भी थी कई
और मेरे बाद भी
हजारो है
उसकी लुगाई
उसने तोडा मेरे सपनो को
उजाड़ दिया
हर बाग़ मेरा
आज भी बन के बुत
मेरे हर सपना कहते है
कैसी मुमताज
कहाँ शाहजहाँ है
रहता है
कौन जाने
कितने चक्रवात से निकले
मेरी रूह
आज तो बस प्यार के नाम पर
कही धोखा रहता है
5 comments:
कौन जाने
कितने चक्रवात से निकले
मेरी रूह
मार्मिक प्रश्न .... लिए सुंदर कविता
बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!
वाह.. बहुत सुंदर
apni apni kismat hai,koi ro ke hasta hai,koi has ke rota hai,aur koi rota rahta hai....
मेडम जी आप कविता तो हमेशा ही भांति सुन्दर ही लिखती हो, लेकिन आप हैं कहाँ? बहुत समय से कोई जानकारी ही नहीं है!
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