Monday, May 9, 2011

कौन कहता




कौन कहता

प्रेम का कोई छोर नहीं होता

सच तो है ये की प्रेम का कोई ठोर नहीं
याद करती है नाम वो प्रीतम का
ऐरी सखी मौन हो जाती जुबा
आंख डबडबा जाती मेरी
खामोश सजी लबो पे हंशी
आँखों को रुलाजाती है
मेरे दिल का ताज महल ब्याकर्ता
शाहजहाँ की बेवफाई
मेरे पहले भी थी कई
और मेरे बाद भी
हजारो है
उसकी लुगाई
उसने तोडा मेरे सपनो को
उजाड़ दिया
हर बाग़ मेरा
आज भी बन के बुत
मेरे हर सपना कहते है
कैसी मुमताज
कहाँ शाहजहाँ है
रहता है

कौन जाने
कितने चक्रवात से निकले
मेरी रूह

आज तो बस प्यार के नाम पर
कही धोखा रहता है

5 comments:

डॉ. मोनिका शर्मा said...

कौन जाने
कितने चक्रवात से निकले
मेरी रूह

मार्मिक प्रश्न .... लिए सुंदर कविता

Urmi said...

बहुत सुन्दर और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
मेरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है!

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

वाह.. बहुत सुंदर

इंकलाब said...

apni apni kismat hai,koi ro ke hasta hai,koi has ke rota hai,aur koi rota rahta hai....

Anonymous said...

मेडम जी आप कविता तो हमेशा ही भांति सुन्दर ही लिखती हो, लेकिन आप हैं कहाँ? बहुत समय से कोई जानकारी ही नहीं है!