भारतीय संविधान में लिंग समानता के सिद्धांत में मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्यों और निर्देशक सिद्धांत अपने प्रस्तावना में निहित है,i क़ि संविधान ना केवल महिलाओं के लिए समानता का अधिकार बल्की देश के विकाश में महिलाओं कि सकारात्मक भागेदारी कराई जा सके, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के ढांचे के भीतर हमारी कानून व्यवस्था विकास की नीतियों और योजनाओं और कार्यक्रमों तथा विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की उन्नति के उद्देश्य से ही किया जा सके . 1990 में राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना किया गया, जिसका उद्देश महिलाओं के अधिकारों, कानूनी एंटाइटेलमेंट की रक्षा की जा सके . भारत के संविधान में 73 व और 74 वा संशोधन (1993) किया गया जिससे स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए पंचायतों और नगर पालिकाओं की सीटों के आरक्षण व्यवस्था प्रदान की गई है, ताकी राष्ट्र के विकाश में अपना निर्णय लेने में उनकी भागीदारी ली जा सके और हर महिला समाज में एक मजबूत नींव बिछाने में अपना योगदान दे सके
जिसका उद्देश था महिलाओं के पूर्ण विकास के लिए एक वातावरण बनाना, उन्हें अपनी पूरी क्षमता का एहसास करना सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों के माध्यम से उनकी भागीदारी को बढाना,ताकी सभी क्षेत्रों में समान आधार पर पुरुषों के साथ महिलाओं को सभी मानव अधिकारों तथा सभी मौलिक स्वतंत्रतावोभी जाये ताकी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक बन कर आगे बढाया जा सके सके !
महिलओ के लिया अवसरों क़ि कमी नहीं पर सच तो यहाँ है क़ि आज भी महिला अपने भविष्ये निर्माण हेतु निर्णय लेने मी सक्षम नहीं कितनी बड़ी हमारे समाज क़ि विडंबना है ! २१सवी सड़के डोरमे जहा महिला चन पर जा रही है वही समाज के माध्यम वर्गी परिवार की महिलये पहलेसे अधिक दोधारी तलवारों पर चलरही है , जहाँ धार्मिक बात करे तो महिलओ वो देवि बना कर पूजा तो जा सकते है पर सम्मान और उनका हक़ उन्हें नहीं दिया जा सकता है कस यह विरोधभास है !
इन्ही विचारो को समर्पित मेरी यह कविता
++++++++++++++++++++++++++++++ +
ओ वसुंधर
कब तक
और कब तक तुम मौन रहोगी
त्यागमय
तपसिवानी
पतिव्रता
सती-साध्वी
शर्मीली
छुईमुई
बनकर मृग तृष्णा में फंसोगी
कब तक ओ मृगनयनी
तुम कब तक
पतिता
कुलटा
से सजे
शब्द भेदी बादो के ताप को सहोगी
अब थक गई मेरी आंखे
यह सुनते सुनते
उफ़ उफ़ उफ़ ................
ओ धरा एकबार सुनो
कब त्यागीगी मोह
कब तोडोगी
यह अमानवी बढ़िया
कब तुम गुलामी की कुरीतियों का चोला उतर
सोयम के लिया मेहनतकस बनोगी
एक बार सच में जब तुम स्योम को जान कर
स्वभिलाम्बी
स्वतंत्र
आत्मनिर्भर बन कर
तब ही
जनतंत्र के अधिकारों का भोग कर सकोगी
क्या तुम्हें नहीं लगता
तुम मात्र शरीर नहीं
नाही कामवाशना पुर्तिमात्र ..
ओ अनन्त उर्जारुपानी
सोचो
सोचो
नजाने कितनी चढ़ गई
अग्निकी भेट
नजाने कितनी मर गई गर्भी में
क्या तुमभी गुलामी की जकड़न को सहना चाहती हो
क्या तुम मानव बनाई इन बेडियो से बहार नहीं आना चाहती
तुम्हे अजादी नहीं पसंद
सोचो एकबार जरासोचो
और मुझे बातो
तुम क्या चाहती हो
मनु मंजू शुक्ला
2 comments:
सुन्दर और सार्थक विचारों से ओतप्रोत रचना! साधुवाद!
sukiya sir
Post a Comment